बुधवार, 18 मई 2011

बेटियों ने तोड़ी बेड़ियां

तारीख 16 मई साल 2011 को दुर्ग में एक अंतिम यात्री निकली जो कई मायनों में औरों से अलग थी। इस अंतिम यात्रा ने सदियों से रूढ़ियों में जकड़े सामाज को सोचने को मजबूर कर दिया। हालांकि ये कोई पहला वाकया नहीं है। फिर भी ऐसे नजारे विरले ही देखनें को मिलती है। जब बेटियां अपने पिता के अर्थी को कंधा दे और अंतिम क्रिया कर्म करे। रेलवे कॉलोनी में रहने वाले आनंद मोहन दुले की सिर्फ तीन बेटियां हैं। उनकी इच्छा थी कि उनके निधन के बाद उनकी बेटियां ही चिता को मुखाग्नि दें। लिहाजा इन बेटियों ने अपने पिता की अंतिम इच्छा पूरी की और पूरे विधि विधान से अंतिम क्रियाकर्म किया। मजाक में कही गई बातों को इन बेटियों ने कभी नहीं भुलाया और जब पापा दुनिया से रुखसत हुए तो इन्होने अपने फर्ज को पूरा करके मिसाल कायम कर दी। लड़कियों के लिए वर्जित माने जाने वाले श्मशान ने भी इन बेटियों के कदम पड़ने पर खुद को धन्य महसूस किया होगा। और जलती चिता के साथ सदियों पुरानी रुढ़ियां भी खाक हो गई। अवंतिका, अनामिका औऱ आनंदिता ने अपना फर्ज निभाने के साथ ही समाज को एक बड़ा सबक भी दे दिया।

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